कैसी है कागज़ फिल्म?
दोस्तों हॉलीवुड में जब भी स्पाई मूवी बनती है तो आपने गौर किया होगा की उसमे एजेंट की कोई भी इनफार्मेशन नहीं होती है यानि की वह दुनिया में बिना किसी आइडेंटिटी के जी रहा होता है। ऐसा इसलिए क्यूंकि ज्यादातर विकसित देशों में हर व्यक्ति के पास आइडेंटिटी प्रूफ होते ही है और जिनके पास नहीं होते हैं वह या तो चोरी छुपे जीते हैं या एक जासूस की जिंदगी जी रहे होते हैं। मगर भारत देश की बात की जाये तो आपको बहुत सारे लोग आज भी ऐसे मिल जायेंगे जोकि जिन्दा होते हुए भी सरकारी रिकार्ड्स में मर चुके हैं।
अब ऐसा चाहे जिस भी कारणवश हुआ हो लेकिन एक विकासशील देश में कागज़ बहुत ज्यादा मायने रखते हैं सरकार की किसी भी योजना का लाभ उठाने के लिए। लेकिन क्या हो अगर आपके पास आपके जिन्दा होने के कागज़ ही न हो? सरकारी तंत्र पर कुछ इसी तरीके से कटाक्ष करती फिल्म है कागज़। एक व्यक्ति को अपने जीवन के लिए उसके कागज़ का होना कितना जरूरी है इसी कुछ महतवपूर्ण बातों पर रौशनी डालती हुई फिल्म है कागज़ जोकि आधारित है लाल बिहारी पर जोकि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कागज़ों पर मरा हुआ है।
हलाकि इस विषय पर आपने कई धारावाहिक पहले भी देखें होंगे लेकिन फिल्म के रूप में इसको बनाकर डायरेक्टर सतीश कौशिक ने काफी बेहतरीन काम किया है जोकि सरकारी तंत्र की इन बातों को भी उजागर करता है सरकारी बाबू अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होते हैं और उसे सही करने का तो जिक्र भी नहीं करते हैं इसलिए आम आदमी की जिंदगी कैसे बदतर हो जाती है उसका अच्छा उदहारण आपको देखने को मिलेगा।
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क्या कागज़ फिल्म हमें देखनी चाहिए?
कागज़ एक बेहतरीन कहानी के सांथ आपको मनोरंजन का पूरा आनंद देती है इसलिए हमारी राय में आपको इसे पूरे परिवार के सांथ जरूर देखना चाहिए।
कागज़ फिल्म रेटिंग कितनी है?
कागज़ फिल्म को IMDB पे 10 में से 7.6 की रेटिंग मिली है और गूगल पर इस फिल्म को 97% लोगो ने पसंद किया है। हम इस फिल्म को 5 में से 3.5 स्टार देंगे।
परफॉरमेंस
पंकज त्रिपाठी की काम आपको सबसे ज्यादा मंत्रमुग्ध कर देगा और यह उनकी खासियत है की हर किरदार को सिंपल तरीके से निभाना इसलिए इस तरह के रोल के लिए उन्हें चुना भी गया था।
इस फिल्म में दूसरा जिनका काम सबसे ज्यादा निखार कर आता है वह मोनाल गज्जर का उन्होंने भी सादगी को बड़ी ही सरलता से निभाया है और अपने किरदार के सांथ पूरा इन्साफ किया है।
सतीश कौशिक की एंट्री थोड़ी लेट है लेकिन उनकी कॉमिक टाइमिंग हो या सीरियस अंदाज़ वह अपने हर रोल को महत्वपूर्ण बना ही देते हैं।
फिल्म में क्या अच्छा है?
कागज़ फिल्म के डायरेक्शन की बात की जाये तो इस फिल्म को सतीश कौशिक ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से बनाया है और एक गांव की जिंदगी को अच्छे से परदे पर उतारा है जोकि 80-90 के दशक को दर्शाती है। कुछ महत्वपूर्ण पहलू जैसे गांव में स्त्री समान और गांव के लोगो का एक दुसरे के प्रति चिंता, प्यार यह भी अच्छे से परदे पर उतारा है जोकि बॉलीवुड की फिल्मों में अब देखने को नहीं मिलता। इसी प्रकार डायलॉग की बात की जाये तो वह भी आपको तंज़ की तरह हँसाने में अच्छे से कामयाब हो जाते हैं।
कागज़ फिल्म का म्यूजिक भी आपको औसत से अच्छा देखने को मिलता है जहाँ कुछ गाने आपको सच में आनंद देते हैं तो वहीँ बैकग्राउंड म्यूजिक उतना अच्छा तो नहीं लेकिन फिर परिस्थितियों के अनुसार जरूर है।
कागज़ फिल्म का स्क्रीनप्ले काफी कैसा हुआ है जहाँ फिल्म शुरू में किरदारों को स्थापित करने के बाद अपने मुख्य मुद्दे पर जल्दी आ जाती है। आपको ज्यादा बोरियत होने के पल फिल्म में कम ही मिलेंगे क्यूंकि इमोशंस और संघर्ष की लड़ाई यहाँ बराबर चलती रहती है।
फिल्म में क्या बुरा है?
फिल्म में कुछ गाने और आइटम सांग हैं जोकि कहानी के बीच में आकर आपके फोकस को जरूर भंग कर देते हैं।
कुछ कहानी के दृश्यों का अंत न होने की बजाय बीच में कट हो जाता है जोकि देखने पर अच्छा नहीं लगता। क्या भरत लाल अपनी जमीन को वापस ले पाया या उसकी दुकान आगे उसे मिल पायी या नहीं यह भी फिल्म में नहीं दिखाया जिससे थोड़ा फिल्म को और इमोशनल फायदा मिल सकता था।
कागज़ फिल्म के किरदार
पंकज त्रिपाठी: भरत लाल, सतीश कौशिक: साधो राम, मोनाल गज्जर: रुक्मणि, नेहा चौहान: पत्रकार सोनिया, मीता वशिष्ट: MLA अशरफी देवी, बृजेन्द्र कला: जज
कागज़ फिल्म की कहानी
फिल्म शुरू होती है एक शादी बैंड के मालिक भरत लाल से जोकि अब अपने काम को बढ़ाने के लिए लोन का अप्लाई करता है लेकिन उसे यहाँ पता चलता है की वह सकरी कागज़ो में जिन्दा ही नहीं है इसलिए उसे लोन नहीं मिल पता है। अपने आप को कागज़ों में जिन्दा करने के लिए भरत अब हर मुकीम कोशिश करता है लेकिन उसे किसी भी तरीके से सफलता हाथ नहीं लगती है।
ऐसे में क्या भरत को अपने जिन्दा होने का सबूत मिल पायेगा या नहीं यही इस फिल्म की कहानी है और हम चाहेंगे की आप इस फिल्म को जरूर देखें।
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